दोहरा इंसाफ
‘‘अगर आपने अपनी
बेटी को पढ़ाया
होता .... तो आपको
ये दिन नहीं
देखना पड़ता ....! आप
लोगों को ये
बात समझ क्यों
नहीं आती?’’ ज्वाला
ने गरजते हुए
कहा।
‘‘आप शहरी लोग
क्या जानो.... मैडम
........! कि गाँवों में समस्याओं
का विकराल जाल
फैला हुआ है।’’
गंगाधर ने हताश
होते हुए कहा।
इसके बाद आँखों
में पश्चात्ताप के
आँसू लेकर गंगाधर
... वहाँ से चला
गया।
उसके जाने के
बाद ज्वाला अपने
विचारों में खो
गई। वो भी
तो गाँव से
ही आई थी
...। गाँव में
पूरा बचपन बीता।
घर में अपने
भाई-बहनों में
सबसे बड़ी वही
थी। बड़े ही
नाजों से पालने
के बाद केवल
17 साल में ही
उसकी शादी कर
दी गई।
शादी के बाद
कुछ दिन तो
हँसी-खुशी से
गुजरे। लेकिन इसके बाद
ही प्रताड़नाओं का
दौर शुरू हो
गया। रोज-रोज
की मार-पीट,
गाली-गलौच से
ज्वाला तंग आ
चुकी थी।
बचपन से ही
ज्वाला की पढ़ाई
में रूचि थी।
उसकी आगे पढ़ने
की दिली इच्छा
थी। लेकिन शादी
के बाद उसके
सपनों को कहीं
दबा दिया गया।
यहीं नहीं, कुछ दिनों
बाद ही घर
में छोटी-छोटी
बातों को लेकर
कलह उत्पन्न होने
लगी।
गाली-गलौच, मार-पीट
की घटना तो
आम-सी बात
हो गई थी।
फिर एक दिन
तो हद ही
हो गई, जब
ज्वाला की सास
ने अपने बेटे
के लिए दूसरे
रिश्ते की बात
की। जाने-अनजाने
ज्वाला ने अपने
पति और सास
की बातें सुन
ली। ये बातें
सुनकर ज्वाला का
सिर चकरा गया।
भावहीन ज्वाला अपने कमरे
में आकर चुपचाप
सो गई।
आधी रात को
सहसा आँखें खुलीं,
तो वो अवाक्
रह गई, पूरे
घर में आग
लगी हुई थी।
पर इस आग
की तपिश से
कहीं ज्यादा, उसका
अंतर्मन जल रहा
था।
उसे समझते हुए ये
देर न लगी
कि सहसा आग
लगने का क्या
कारण था।
अपनों के इस
अनजानों से किए
गए कृत्य ने,
उसके जीने की
इच्छा ही छीन
ली थी।
इसी उधेड़-बुन के
बीच सहसा उसकी
नजर अपने कमरे
में रखी अपने
परिवार के साथ
खिंचवाई गई तस्वीर
पर पड़ी। अपने
पिता की मुस्कान
देखकर उसमें एक
नई जीविषा का
संचार होने लगा।
उसने शोर मचाना
शुरू किया, बंद
कमरे से निकलने
की भरसक कोशिश
की।
शोर सुनकर आस-पास
के लोग भी
आग बुझाने के
लिए आ गए।
‘‘मैडम जी ... मैडम जी
....।, आपसे मिलने
कोई साहब आए
हैं .....।
अचानक दरवाजे पर हुई
दस्तक ने, ज्वाला
को विचारों के
भंवर से बाहर
निकाला।
सामने गंगाधर खड़ा था।
उसने ज्वाला की
तरफ एक फाइल
बढ़ाते हुए कहा
- ‘‘ आप देख लीजिए
मैडम जी ... इस
फाइल में उस
इंसान की तस्वीर
भी है जिसमें
मेरी बेटी का
जीवन नर्क बना
दिया।’’
‘‘तस्वीर देखते ही ज्वाला
हैरान रह गई।
भाव शून्य होकर,
वे टकटकी लगाए
तस्वीर को देखती
रही। उसके अतीत
ने एक बार
फिर उसे निराशा
से भर दिया
था।
खुद को संभालते
हुए ज्वाला ने
धीरे से कहा
- ‘‘आप ...! भरोसा रखिए ... इंसाफ
जरूर मिलेगा। इस
बार ...। फिलहाल
आप जाइए ...।
मुझे केस की
स्टडी करनी है।’’
‘‘जी मैडम ...।’’ गंगाधर
नमस्ते कहते हुए
वहां से बाहर
निकल गया।
उसके बाद जाते
ही ज्वाला खुद
से बातें करने
लगी।
‘‘ऐसा कैसे कर
सकता है कोई
...!!’’
लालच और खुदगर्जी
के सामने भावनाओं
का कोई मोल
नहीं है क्या
...!’’
‘कितना वक्त लगा
मुझे खुद को
सँभालने में ।’
वकालत को मैने
एक पेशा नहीं,
बल्कि जुनून की
तरह पूरा किया।
अगर उस रात
गाँववालों ने मुझे
न बचाया होता
... तो मेरी जीवन
लीला कब की
समाप्त हो गई
होती।
उमेश ... मैने तुम्हें
एक बार माफ
किया था। पर
अब ‘दोहरे इंसाफ’
का वक्त आ
गया है।
इस बार तुम्हें
कीमत चुकानी ही
पड़ेगी।
ये सोचते हुए ज्वाला
की आँखें नम
हो गई।
दोहरे इंसाफ की इस
लड़ाई में ज्वाला
को एक बार
फिर आग की
तपिश महसूस होने
लगी।
प्रतिमा जायसवाल